किस मृत्यु का दुख नहीं होना चाहिए!
किसी भी परिवार के सदस्य के किसी भी उम्र में देहावसान से एक नश्वर शरीर सहित एक रिश्ते का अंत होता है। अल्पायु या किसी भी उम्र में जिम्मेदारी पूर्ण किए बिना व्यक्ति के देहावसान से दुख से ज्यादा परेशानी का सामना मां बाप, पति पत्नी संतान सहित आश्रितो को करना पड़ता है। सबसे ज्यादा कठनाई आर्थिक क्षेत्र में करना पड़ता है।
आज के युग में माइक्रो परिवार का जमाना आ गया है। सामाजिक संबंध के स्थान पर स्टेटस रिलेशन का दौर है। सार्वजनिक रूप से मिलने का स्थान केवल सामाजिक कार्यक्रम हो गए है।ऐसे में “सामाजिक अकेलापन”एक नए बीमारी के रूप में जन्म ले चुका है।
आज के दौर में अधिकांश परिवारो में किसी ऐसे व्यक्ति जिसकी उम्र 60पार हो ,का देहावसान हो जाए तो रात को ये स्थिति रहती है कि घर में सगे संबंधी भी घर जा चुके होते है और प्रभावित परिवार में गिने चुने सदस्य शेष रह जाते है। आप कल्पना कर सिहर सकते है कि महानगरों और bde शहरों में स्थिति और भी भयावह है। अर्थी को कंधा देने के लिए अनजान लोग खड़े होते है। कई घरों में व्यक्ति मरा पड़ा रहता है, दुर्गन्ध आने पर पता चलता है। संताने वीडियो काल से डिस्टेंस फ्यूनरल कर रहे है। ये सब चेतावनी है,समय रहते नही चेते तो मान कर चलिए कि कोई इंटरपेन्योर इस दिशा में स्टार्टअप खोल कर अंतिम संस्कार को इवेंट में बदल सकता है।इन बातो से आप कितना सीख लेंगे ये आप पर निर्भर करता है।
एक प्रश्न मन में कौंधता है कि किस व्यक्ति के मृत्यु के बाद दुख या शोक को कितने स्तर तक मनाया जाना चाहिए?
हिंदू धर्म में आश्रम परंपरा अब केवल ज्ञान या श्रुत विषय हो चुका है। हम ये जरूर जानते है कि चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ,वानप्रस्थ और संन्यास है। सौ साल के तथाकथित जीवन की आयु मान कर 25- 25 साल विभाजित है। आमतौर पर 75साल की आयु तक अधिकांश व्यक्ति अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूर्ण कर चुका होता है। मेरा अपना मानना है कि इस उम्र के पहले भी यदि कोई व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी पूर्ण कर ले तो ऐसे व्यक्ति के देहावसान से रिश्ते के विछोह का दुख होना स्वाभाविक है लेकिन शरीर के समाप्त होने दुख की मात्रा का प्रचुर होना अस्वाभाविक है। खास कर अस्वस्थ व्यक्ति के मृत्यु होने पर न केवल मृत व्यक्ति को कष्ट से निजात मिलता है बल्कि परिवार के सदस्य भी परेशानी से बाहर निकलते है। आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के लिए बीमार व्यक्ति एक समस्या होता है। जिसके जीने का मतलब परिवार के आर्थिक संकट में पड़ना होता है। ऐसी स्थिति में मेडिकल साइंस के कृत्रिम जीवन से बेहतर सामान्य मृत्यु है जो घर में हो परिवार के सदस्यो के बीच में हो। मेरे पिता 94साल के हो चुके थे। दीर्घ जीवन का अमृत पान आयु के लंबे होने के कारण कर ही रहे थे समांतर रूप से अपने से छोटे भाई, भतीजे, पुत्र – पुत्री सहित अपने दामाद के मृत्यु का विष भी पीना पड़ा। ऐसे दुख दीर्घ आयु की सजा भी है। संवेदना में दीर्घायु व्यक्ति के मृत्यु पर न शोक होना चाहिए, न हो दुखी होना चाहिए।रिश्ते के विछोह का दुख स्वाभाविक है लेकिन बीमारी व्यक्ति सहित परिवारजनों को भी कठनाई
में डालती है। मेरे पिता केंसर रोग से पीड़ित थे। पिछले चार महीने में शरीर ने तेजी से साथ देना छोड़ना शुरू किया। शुक्र है कि पूर्णतः अशक्त होते, देह त्याग दिए।
मेरे परिवारजनों ने तीन बाते तय की
1 अंतिम संस्कार के बाद शमशान घाट में शोक सभा आयोजित नहीं होगी।
2 सामान्य रूप से मृत व्यक्ति के लिए होने वाले कार्यक्रम के सूचना में “शोक संदेश ” प्रकाशित होता है।हम “शोक” शब्द से परहेज करते हुए केवल “संदेश” प्रेषित किया
3- दीर्घ 94साल की उम्र में देहावसान से हमने सन्देश को सफेद रंग के कार्ड पर काले अक्षर के स्थान पर लाल नीले रंग का प्रयोग किया
4संदेश पत्र में “अत्यंत दुख के साथ” और”शोकाकुल” शब्द का उपयोग नहीं किया
5 तेरहवीं के दिन हमने मानदान रिश्ते की जगह संस्कृत कालेज के पंडितो को प्राथमिकता दी। परिवार का हर सदस्य मान रखता है इस कारण सभी का मान बराबर रखा।
कहा जाता है मृत्यु भी पर्व है लेकिन दीर्घ जीवन जीने और अपनी जिम्मेदारी पूर्ण कर लेने वाले व्यक्ति के लिए मृत्यु पर्व है।