मुझे लगता है कि मां को निदा फ़ाज़ली से बेहतर न कोई समझ सकता है, न अभिव्यक्त कर सकता है,
उनके हर शब्द को नमन है
बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां
याद आती है! चौका बासन चिमटा फुकनी जैसी माँ
बांस की खर्री खाट के ऊपर हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी थकी दो-पहरी जैसी मां
चिड़ियों की चहकार में गूंजे राधा मोहन अली अली
मुर्ग़े की आवाज़ से बजती घर की कुंडी जैसी माँ
बीवी बेटी बहन पड़ोसन थोड़ी थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर चलती नटनी जैसी माँ
बांट के अपना चेहरा माथा आंखें जाने कहां गई
फटे पुराने इक एल्बम में चंचल लड़की जैसी मां
आज इन पंक्तियों में जी लीजिए