कितना आसान हो गया है असामाजिक होना
इंसानी दिमाग:जीवन से भरा जंगल
अरस्तू ने कहा था कि”मनुष्य स्वभाव से एक सामाजिक प्राणी है” उसे साथ और संगत की जरूरत जीवन के आरंभ से लेकर खत्म होने तक होती है। आज मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के बजाय असामाजिक प्राणी होने की शिकायत मिल रही है क्योंकि मानसिक रूप से संबंध की प्रगाढ़ता मेल मिलाप पर निर्भर है और यांत्रिक उपकरणों के चलते संबंध भी यांत्रिक होते जा रहे है। अकेलापन, अवसाद हमारे इर्द गिर्द बढ़ते जा रहा है। यूं कहे कि हम हिंसक भी होते जा रहे है।
ऐसा क्यों?
देखा जाए तो हमारा मस्तिष्क एक जंगल के समान है, जो जीवन से भरपूर है ।यहां विकास और क्षरण की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। जाहिर है जंगल में हरे भरे इलाके है तो सूखे हुए क्षेत्र भी है। इसके मायने ये है कि इस दिमाग के भीतर साधु, संत, जानवर, सबका निवास है।
अगला सवाल ये इस विचार प्रक्रिया में ये खड़ा होता है कि इस मस्तिष्क रूपी जंगल में किसका राज है? क्या वह शेर है जो अपने साहस और संकल्प और वर्चस्व से बाकी पर राज करता है या फिर एक बंदर जो एक शाखा से दूसरी शाखा तक उछल कूद करते हुए आत्म प्रदर्शन करता है लेकिन वह किसी राजकाज की प्रक्रिया से दूर रहता है और समाज पर जिसका अनचाहा असर भी होता है।
पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त कार्ल सेगन ने अपनी पुस्तक “द ड्रैगन्स ऑफ इंडेन” में रीढ़युक्त मस्तिष्क के विकासक्रम और उसके व्यवहार को समझाया है मेक्लिन ने 1973में इंसान के मस्तिष्क के रहस्यो के अन्वेषण की खूबसूरत अवधारणा पेश की है। आज के मनुष्य के मस्तिष्क का विकास जातिवृत्तिय ढंग से हुआ है जो तीन विशिष्ट और भिन्न बायो कम्प्यूटर में बंट गया है। हर के अपने जेनेटिक प्रोग्राम है। ये तीन हिस्से है रिप्टेलियन, पेलियोमैंमेंलियन, और नियोमैंमेंलियन ग्रंथि। प्रत्येक संरचना मानव मस्तिष्क के विकासक्रम में समय के साथ एक के बाद एक जुड़ती गई है।
रिप्टेलियन मस्तिष्क भौतिक अवस्था को कायम रखने के लिए जिम्मेदार है। इसका लेना देना अपने अस्तित्व को बनाए रखने में काम आने वाले स्व स्फूर्त व्यवहार या प्रतिक्रिया से है।आक्रामक व्यवहार,पलटवार, प्रजनन, वर्चस्व,अपने इलाके की पहरेदारी और क्रमकांडीय कार्य इसमें आते है। इनका संबंध अस्तित्व को बचाए रखने वाली विचार प्रक्रिया के साथ है।
पेलियोमैंमेंलियन ग्रंथि मस्तिष्क का भावनात्मक हिस्सा है।ये सामाजिक अस्तित्व का मुख्य केंद्र है।प्रेम, नफरत, भय,सुख, यौन संतुष्टि, कुढन, लगाव जैसे भाव यहां से जन्म लेते है। किसी व्यक्ति के संपर्क में आने या परिस्थितियों के टकराने से हमारे भीतर जो विभिन्न अहसास पैदा होते है,ये हिस्सा उसके लिए जिम्मेदार है।
नियोमैंमेंलियन ग्रंथि केवल स्तनपायी जीवों में पाई जाती है ।इसका लेना देना बौद्धिकता और आधात्यमकिता से होता है।आश्चर्य की बात ये है कि मनुष्य इसका प्रयोग सबसे कम करता है। यही ग्रंथि की मौजूदगी ही मनुष्य के दिमाग को पशु के दिमाग से अलग करती है।
जो लोग रिप्टेलियन और पेलियोमैंमेंलियन ग्रंथि से संचालित होते है वे लोग मानसिक रूप से समाज के लिए हानिकारक होते है। आज पशुवत आचरण का बढ़ावा हो रहा है तो इसका कारण उपलब्ध जानकारियां है जो नकारात्मक और भौतिक वाद की तरफ ढकेल कर मनुष्य को सामाजिक बनाने के बजाय असामाजिक प्राणी बना रहा है।
मनुष्य को ऐसे वातावरण की जरूरत है जो उसे यांत्रिक होने के बजाय सामाजिक बनाए जो उसके मानवीय संभावनाओं को नया जीवन दे सके