विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस लोकतंत्र के तीन स्तम्भ के रूप में संविधान में व्यवस्थापिका,कार्य पालिका और न्यायपालिका का उल्लेख होता ही है। इसमें बेलगाम व्यवस्थापिका और कार्य पालिका पर नियंत्रण रखने के लिए चौथे स्तंभ के रूप में इलेक्ट्रोनिक मीडिया के आने के पहले प्रिंट मीडिया को चौथे स्तंभ के रूप में और काम मिला था। ये देश गणेश शंकर विद्यार्थी , लोकमान्य तिलक और लाला लाजपत राय जैसे निर्भीक लोगो का देश है।इन्होंने शब्दो के माध्यम से देश को जागृत किया और आजादी की लड़ाई में अमूल्य योगदान दिया। 1947 में मिली आजादी के बाद से अगले अठाईस साल तक प्रेस की आजादी काफी हद तक बरकरार थी। इंदिरा गांधी देश की पहली प्रधान मंत्री थी जिन्होंने प्रेस को सरकार की भोंपू बनाने के लिए “सेंसरशिप”का रास्ता अख्तियार किया। आपातकाल में कलम पर पहरा बैठाने की कोशिश की गई लेकिन देश के मतदाताओं ने मतपत्र का दम दिखाया और देश की प्रधानमंत्री को ही चुनाव में पराजित होना पड़ा।भारत के इतिहास में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रहते हुए पराजित होने अली पहली प्रधान मंत्री बनी। उस दौर में प्रिंट मीडिया ने देश के लोक तंत्र को बचाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी। देश की प्रिंट मीडिया को दूसरी बार सरकारी नियंत्रण में लाने का प्रयास राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में हुआ जब प्रेस को समाचार मिलने का सूत्र बताने के लिए मजबूर करने वाला विधेयक को लोकसभा में पारित करवा लिया गया था देश के संपादकों ने इसे जनता के जानने के अधिकार का हनन बताते हुए विद्रोह कर दिया नतीजा ये हुआ कि सरकार की किरकिरी हुई और राज्य सभा में इस विधेयक को रखा ही नहीं गया। कालांतर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का आगमन हुआ और पढ़ने वालों में से अधिकांश पाठकों में से दर्शक बनने लगे। मीडिया दो भागों में बंट गया। 1991में देश में उदारीकरण का दौर आया और निवेश जैसे शब्द का जन्म बड़े पैमाने पर हुआ। मीडिया भी इसके गिरफ्त में आया और प्रेस जगत में संपादक के साथ सेठ जी और मुख्य कार्य पालन अधिकारी (सीईओ) जैसे पद सृजित हो गए। ऐसा नहीं था कि प्रेस जगत में सेठ जी पहले नहीं थे।थे लेकिन वे प्रेस की महत्ता को समझते थे, नफा नुकसान से परहेज था। नए दौर में मीडिया हाउस आ गए जिन्होंने प्रेस की अभिव्यक्ति के ऊपर “स्वार्थ की दुकान”खोलकर नफा देखने का काम शुरू किया। संपादक नेपथ्य में चला गया और मुख्य कार्य पालन अधिकारी प्रथम हो गए। इसके बावजूद भी सीमित स्वतंत्रता बरकरार दिखती है।सच ये है कि अब प्रेस की खबरों पर असर तब होता है जब सारे प्रेस एक मत होकर किसी विषय पर विरोध करते है अन्यथा व्यवस्थापिका और कार्य पालिका में ये बात सामान्य हो गई है कि फला प्रेस वाला ब्लैक मेलिंग कर रहा है। अभिव्यक्ति के आजादी के पहरेदार प्रेस का आज दिन है।
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